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शीला इंद्र की कहानी—  स्वेटर के फंदे

>>  Thursday 19 January 2012


जिस बात से माँ जी डर रही थी, वही हुई। बाबू जी दो-चार कौर खा कर ऐसे ही उठ गए जब खाने बैठे थे, तो ऐसा नहीं लगता था कि भूख बिल्कुल है ही नहीं यों जबसे दोनो दुकाने दंगाइयों ने जला दी, उनकी क्या, घर में सभी की भूख-प्यास नींद उड़ गयी थी. पर रोया भी कहाँ तक जाए, आँसू भी तो इतना साथ नहीं देते। हाँ! माँ जी को मालूम है कि बाबू जी की आँखों ने कभी खारा जल नहीं बहाया, पर उनकी छाती से उठती वे दिल को चीरती गहरी निश्वासें, माँ जी ही जानती थी कि वह रो रहे है... ऐसे कि रो-रो कर उनका हृदय छलनी हुआ जा रहा है।
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‘‘ऐसे गुमसुम होकर बैठोगे, तो कैसे चलेगा? आखिर इन बच्चों की तरफ देखो न। अपनी खातिर नहीं, इन्हीं की खातिर सही, कुछ हँसों बोलो तो। तुम्हारी वजह से ये बच्चे भी सहमे-सहमे से रहते हैं’’ वह कहती।
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पर बाबू जी बिना कुछ कहे सिर झुका लेते। फिर धीरे-धीरे वह हँसने-बोलने भी लगे। बच्चे जब घर में आ जाते, वे उनसे दो--चार बातें कर खुश हो लेते थाली सामने आ जाती, तो पेट भर के खा लेते। पर आज माँ जी सुबह से ही डर रही थी कि छोटी बहू के नौकरी कर लेने की बात सुनकर खाना न खा सकेंगे। उन्होंने बहुतेरा कहा-जा अपने ससुर से आज्ञा तो ले ले कि नौकरी करुँ या नहीं.... पर वह अड़ियल टट्टू की तरह अड़ी ही रही। बोली- बाबूजी के पास जाने का, उनकी आज्ञा लेने का मेरा साहस नहीं है, माँ जी।
आगे-

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